बहुत से दरवाज़े हैं मेरे भीतर,
कुछ लकड़ी के, कुछ धातु के,
कुछ पेड़ों की छाल जैसे खुरदुरे
और कुछ — जैसे किसी बच्चे का अधूरा सपना।
एक अलमारी है
जिसे सालों से खोला नहीं गया।
उसमें रखे हैं पुराने दिनों के काग़ज़,
कुछ चिट्ठियाँ हैं जो भेजी नहीं,
कुछ कभी पढ़ी नहीं,
और अब स्याही के धब्बों में बदल चुके हैं।
कुछ चाबियाँ भी हैं मेरे पास —
ताँबे की, पीतल की,
कुछ इतनी पुरानी कि नाम मिट चुके हैं,
बस छुअन से ही अंदाज़ा लगता है
किसने दी थी, क्यों दी थी।
मैंने खुद को कई बार ताले में बंद किया है,
कभी ज़रूरत से, कभी डर से,
और फिर उन चाबियों को छुपा दिया
किसी किताब के पन्नों में,
किसी रिश्ते की तह में।
अब कोई आएगा,
किसी और की तलाश में,
जंग लगे ताले पर चाबियाँ आज़माएगा,
सोचेगा — यह खुल जाए, तो कोई जवाब मिलेगा।
पर जब वह खुलेगा —
नरम, टूटती हुई साँसों के साथ,
उसमें मिलेगा एक मकड़ी का जाला,
कुछ अधखुली तस्वीरें,
और मिलेगी एक ख़ामोशी, जो बहुत लंबी है।
जो ढूँढ़ा जाएगा — वह कभी था ही नहीं,
और जो मिलेगा —
वह किसी काम का नहीं।
पर एक दस्तक रह जाएगी हवा में,
जैसे कोई गीत
अधूरा छूट गया हो रेडियो पर।
जैसे किसी दीवार ने सुनी हो बात
और फिर उसे खुद में चुपचाप गुम कर दिया हो।
मैं तिजोरी नहीं हूँ,
न ही कोई रहस्य।
मैं बस वह कोना हूँ
जहाँ चीज़ें रख दी जाती हैं और भुला दी जाती हैं।
मेरी सबसे कीमती चीज़
शायद वह ख़ालीपन है
जिसे भरने की कोशिश में
सब कुछ खो गया।