Tuesday, July 5, 2022

वैसी बारिश अब नहीं होती

वैसी बारिश अब नहीं होती। 

जिसकी पहली बूंद पर मन महक उठता था
और उसका ख़्याल महज़ गुदगुदी दे जाता था
रूह थी ख़ुशगवार।
जानबूझकर भीगा करते थे 
फिर चाहे सर्द रातें क्यों न हों।

साफ चाहत, सुर्ख़ दिल और ये नीला आसमान 
एक और बौछार
फिर उसके आने का इंतजार।
फूलों की बरसात सी होती थी 
मिज़ाज़ बन सा जाता था।

हर कतरे के साथ उसका ख़्याल 
मेरे अल्फ़ाज़ों को संगीत देता था।
तेज़ ठंडी हवाएँ 
अंदर कुछ कशमकश 
फिर एक मौसम और बीत जाता था। 

वैसी बारिश अब नहीं होती। 


2 comments:

I write

I write— when silence grows too loud to bear, when thought becomes a knot I cannot untangle. I do not always know what I think, but the pen ...